Sunday, 8 October 2017

रेत की ईमारत

रेत से ईमारत बनने के ख़्वाब में, चला पड़ा टीलों वाले रेगिस्तान में |

वे टीले कभी थे सामने, कभी ओझल हुए, उड़ चले कभी आसमा में ||


मै भी कुछ मशगूल था, कुछ मज़बूर था अपने ईमारत बनाने वाले ख़वाब में |

हारते मन को सीच जाती वो बूंद, जो पड़ जाती कभी, उस दहकते रेतिस्तान में ||


जब हवा उड़ा ले जाती रेत को, मन भूल जाता हकीकत के इस खेल को |

कर विकल इस विरह से मन को, दे जाती कुछ बुँदे मेरे इन दो नयन को ||


मैं रेत की ईमारत के सपने को हकिता बना पाऊं, पुरज़ोर कोशिस करके देखूंगा |

या तो मेरी ये ईमारत होगी, या मैं खुद ही ईमारत हो इस जहाँ से चला जाऊंगा || 


रेत से ईमारत बनने के ख़्वाब में, चला पड़ा टीलों वाले रेगिस्तान में |...



                                                                                         ...राहुल मिश्रा 



"सफ़र कुछ और लिखेनेवाला, पढ़नेवाला और कुछ अलग समझनेवाला  जारी है "








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