बड़ी मुश्किल में हूँ मौला ,किधर से हो के मैं गुजारूं |
जिधर भी देखता हूँ , उधर एक ख़ामोशी सिमटी है ||
जिधर भी देखता हूँ , उधर एक ख़ामोशी सिमटी है ||
भरा है लोगों के घर में ,खजाना ढ़ेरों खुशियों का |
मगर उनको चाहत है , कुछ बड़ी सी खुशियों की ||
अक्सर हम भूल जाते हैं ,हसीं का कोई पैमाना नहीं होता |
छोटी-छोटी सी चाहत यूँ ही नहीं मिलती, उन्हें छोड़ देते हैं , ||
मेरी चाहत नहीं बड़ी खुशियां ,कंकर समेट कर पर्वत बना लूँगा |
पर्वत की चाहत अकसर हमें , कंकर से महरूम कर देती ||
बड़ी मुश्किल में हूँ मौला ,किधर से हो के मैं गुजारूं |..............
---------------राहुल मिश्रा
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