Monday 27 November 2017
Wednesday 8 November 2017
हल-ए-इश्क
डरता हूँ की किसी दिन तेरे लब से हाँ न हो जाए ,
मेरे इन अल्लढ बचपने पे तू , फ़ना न हो जाए ,
फिर रह ही जायेगा क्या जिंदगी में कुछ और पाने को ,
मेरा इज़हार ,तेरा इंकार ,तेरा रूठना , मेरा मनाना
क्या रह जायेगा इस दुनिया से बताने को |
खुश हूँ यु ही, तेरी खुशिओं के सहारे,
कुछ आखों में चमकते सपनों के सितारे ,
तू खुश रहे और क्या चाहिए,
सपनों को भी साथ छोड़न चाहिए,
जहाँ भी झुकाना पड़े ये सर, झुकाना चाहिए ,
दुआ में बस तेरा ही जीकर आना चाहिए ||
ये खुशनुमा अल्फाज़ थे, बस थोडा गुदगुदाने को,
हकीकत से परे है ये केवल मन को लुभाने को ,
डरता हूँ की किसी दिन मैं ठान लूँगा, तुझे भुलाने को,
फिर अगर तेरी याद आई, फिर क्या बचेगा रुलाने को ||
है एक बात और जिसका डर मुझे अक्सर सताता है,
लब से कैसे कहूँ , मेरा मन सहम सा जाता है ,
कही तेरा हाल मेरा सा न हो, किसी दिन मेरे लिये ,
वक़्त बीत जाए , सरे सवेरे लिये ||
बस शाम ही शाम हो, और हम गुमनाम हों,
अल्लढ सा दिल, किसी गली में बदनाम हो ,
फिर तेरे अंशु कैसे सहूंगा मैं, जिंदगी कैसे जिऊंगा मैं,
अब इससे आगे क्या कहू ,कही आखें न कहे दे की हूँ मैं ||
....राहुल मिश्रा
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