Friday 9 February 2018

@क्या करें की दिल हमारा मनाता नहीं


क्या करे की दिल हमारा मानता नहीं 

अक्ल की तो ये, कुछ जानता नहीं 

सरफिरे की शक्ल में ये मासूम है 

हसना है इसको कब, रोना कुबूल है |


चलती हवा में गीत की बंसी सी बज गई 

जब से दिखें हैं वो गमों की बदली छट गई 

हुआ हाल इस कदर की हम जानते नहीं 

खिली धुप में खुद को पहचानते नहीं |


झुकता था सर अक्सर उसके मज़ार पे 

कुछ ख़्वाब थे मेरे जिनके खुमार में  

मांगू क्या अब उस परवरदिगार से 

जब सामने दिखता है वो रंगें बिखार के |  


क्या करे की दिल हमारा मानता नहीं 

अक्ल की तो ये, कुछ जानता नहीं 



                       --- राहुल मिश्रा 






सत्य सिर्फ़ अंत है

सत्य सिर्फ़ अंत है  सत्य सिर्फ़ अंत है, बाक़ी सब प्रपंच है, फैलता पाखण्ड है, बढ़ता घमण्ड है, किस बात का गुरुर है, तू किस नशे में चूर है  समय से ...