Saturday 22 June 2019

बारिश और बचपन

गुनगुनाती ये बुँदे, कुछ स्वर कर गईं 

तुम वही हो, या खो गयी हो कहीं 


नाचती थी जो हाथ  फैला, यही पे कहीं 

खिड़कियों से अब क्यों, ताकती रह गई 


वो जो मुस्कान थी, जिसपे मैं थी गिरी 

वो मोती हथेली की, गुम हो गई 


गुमशुम से हो, जाने कहाँ बंध गए 

खो गए हो न जाने किस ख़्वाब में 


वो चंचल सा बचपन था, अल्लड़ बड़ा 

मौज़ से था भरा, नाव के पीछे चला 


वो कस्ती अब, जाने  किधर को गई  

खिड़कियों से तुम ताकती रह गई 

   

समझ में आया अब समाये का असर  

मुस्कान के पीछे, जाने कितने भवर      


       ----राहुल मिश्रा 


सत्य सिर्फ़ अंत है

सत्य सिर्फ़ अंत है  सत्य सिर्फ़ अंत है, बाक़ी सब प्रपंच है, फैलता पाखण्ड है, बढ़ता घमण्ड है, किस बात का गुरुर है, तू किस नशे में चूर है  समय से ...